जिस प्रकार एकादषी तिथि को विष्णु भगवान तथा त्रयोदषी तिथि को षिवजी की तिथियाॅ मानी जाती हैं उसी प्रकार से कृष्णपक्ष की चतुर्थी को विध्यविनाषक गणेष भगवान की विषिष्ट तिथि होती है। प्राचीन काल में हल्दी को गणेष भगवान की मूर्ति के रूप में पूजा जाता था जोकि आज भी मान्य है। माना जाता है कि हल्दी में मंगलकारी, धन तथा ज्ञान का वास होता है अब भी माना जाता है कि हल्दी ना केवल एंटीसेप्टिक होता है बल्कि जीवन में हर प्रकार से मांगलिक होता है इसलिए ही मंगलकार्य में हल्दी का प्रयोग विषेषरूप से किया जाता है। अतः सर्वप्रथम पूजे जाने वाले भगवान गणेष यहाॅ तक द्वार, पत्रिका के मुख्यपृष्ठ तथा किसी कार्य की शुरूआत में गणेष की मूर्ति या मंत्र का उल्लेख करते हुए कार्य शुभ माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि गणपति का पूजन कर आव्हान करने से कार्य के सभी विध्न समाप्त होकर कार्य निर्विध्न रूप से पूर्ण होता है। भगवान गणेष को संकट हरने वाला देव माना जाता है अतः कार्तिक मास की चतुर्थी को भगवान गणेष के संकटहरन के रूप में पूजन का विधान है। इस व्रत को करने से जीवन में सुख तथा सौभाग्य का विध्न समाप्त होता है साथ ही रोग या हानि से संबंधित कष्ट दूर होता है। इस व्रत में मंगलवार की रात्रि को जब आकाष में तारे दिखाई दे तो चंद्रदेव को अध्र्य देते हुए व्रत का प्रारंभ करना चाहिए। प्रातःकाल स्नान और देव, पितृ तर्पण के बाद गणपति का पूजन शास्त्रोक्त विधान से करना चाहिए। गणेष भगवान को दूर्वा, दही, गुड़ और चावल का भोग लगा जाता है, उसके उपरांत अपामार्ग की एक सौ अठ्ठहत्तर समिधाओं में धी और दही मिलाकर हवन कर ब्राम्हण भोज तथा तांम्रपात्र का दान करने का विधान है। इस व्रत से आरोग्यता, समृद्धि के साथ बुद्धि तथा विवेक की भी वृद्धि होती है।
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