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पितृमोक्ष महायात्रा: श्री महाकाल धाम अमलेश्वर

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पितृमोक्ष महायात्रा: श्री महाकाल धाम अमलेश्वर

संवत् 1278 — जब वंश धमनियों में थम रहा था*
अमलेश्वर का क्षेत्र कलकत्ते नगर के समीप स्वतंत्र राज्य हुआ करता था। वहाँ के राजवंश की मध्यमा पीढ़ी में अचानक संतानहीनता ने घर-घर को शोकविहीन कर दिया। पीढ़ियों से चलती परम्परा अचानक टूटने लगी—राजा, राजकुमार और राज्याभिषेक की आशाएँ सब मलिन हो चलीं।

श्राद्धहीनि पूर्णिमा और अपूर्ण चंद्र
हर पूर्णिमा को मंदिर के प्रधान पुरोहित श्लोकमालाएँ जपता, पर पिण्डदान के बिना श्राद्ध अपूर्ण रह जाता। अमावस्या पर चंद्रमा छिपने लगता, और महाकाल मंदिर के द्वार स्वयं-सेवा का आह्वान करता प्रतीत होता।

स्वप्न में बुदबुदाता करघा: एक ज्योतिर्मयी पुकार
एक रात्रि, महारानी को पक्षी-सदृश करघा का स्वप्न आया—वह महाकाल लिंग की पत्थरछाया पर बैठ कर…

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जहाँ यमदूत भी ठहर जाता, वहाँ मेरे पिता स्वयं मूर्ति बन बैठते।
ले आ पितृदोष निवारण ज्योति, तब ही वंश की धारा पुनः प्रवाहित होगी।

सुबह जागी महारानी ने राजा को प्रसंग सुनाया। राज्यसभा में घोषित हुआ—‘महाकाल की प्रतिमा के सम्मुख प्रथम श्राद्ध अनिवार्य’।

पाषाण से पुनर्निर्मित शिलालेख
वीर सिंह नामक पुरातत्त्ववेत्ता ने पुरातन तल से एक टूटा-फूटा शिलालेख निकाला, जिस पर अंकित था—

“यत्र पितृदोषखलिते च, तत्र वंशा न वेगं ध्रुवीभवेत्।
पितृदोषविनिर्मुक्तयोनिः, तत्रैव महाकालः प्रसन्नो भवति॥”

इसका अर्थ था—“जहाँ पितृदोष की पीड़ा रहे, वहाँ वंश गति खो देता, किन्तु महाकाल पूजन से पितृ प्रसन्न होकर वंश में जीवन श्वास भरता है।”

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तीर्थयात्रा और महाप्रसाद
राजा-रानी ने स्वयम् तीन दिवसीय महोत्सव रखा—

1. सूर्योदय श्राद्ध: तट पर चलायमान अग्नि में पितृशांति यज्ञ।
2. सर्प श्राद्ध: नंदी प्रांगण में नागपूजा एवं फल-फूल अर्पण।
3. नारायण बलि: देवता प्रसादरूप बलि से दीनों को भोजन एवं अनाज वितरण।

तीसरे दिन, महाकाल मंदिर के गर्भगृह में स्वयंभू ज्योति प्रकाशित हुई—

> “पितृशाप शमितो भवति, वंशो वीर्यं पुनरारभते।”

नवजन्मी क्षत्रिय वंशज
उस वर्ष ही रानी ने कोख धारण कर अमलेश्वर के थपकीदार जल से स्नान उपरांत पूर्ण चेतना प्राप्त की। नवजात को ‘वराहश्रेष्ठ’ नाम दिया गया, जिसने आगे चलकर ब्रह्माण्ड जितने रणों में पराक्रम दिखाया।

आज का अनुष्ठान
अभी भी अमलेश्वर तट पर ‘पितृमोक्ष पर्व’ मनाया जाता है—वार्षिक श्राद्धकर्म में राज्य-कुल एवं आम श्रद्धालु मिलकर महाकाल धाम में स्नान, पिंडदान, नागपूजा और सामूहिक नारायण बलि करते हैं। इस अनुष्ठान के बाद ही परिवार में संतान, सौभाग्य और पराक्रम का वास होता है।

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उपसंहार
श्री महाकाल अमलेश्वर का दर्शन केवल दर्शन नहीं, यह एक वचन है—

“यदि पूर्वजों का अनादर, पितृदोष का भार, नागशाप का त्रास—सब मिटाना हो तो यहीं आकर श्राद्ध कर लो। फिर देखो, कैसे वंश फिर से उभरता है महानता के शिखर पर।”*

इसी महिमामयी कथा ने पीढ़ियों से यह सिखाया है कि पितृदोष का निवारण यदि सही विधि से हो, तो वंश धारा अनंत तक प्रवाहित होती रहती है।