सुदर्शन विधि
सुदर्शन विधि महर्षि पाराशर द्वारा रचित है। इस विधि के अनुसार, सूर्य लग्न, चन्द्र लग्न का भी सामान्य लग्न के अनुरूप् ही विश्लेषण किया जाना चाहिए।सुदर्शन चक्र में ये तीन चक्र एक ही में उपस्थित होते हैं।यदि कोई भाव अशुभ या शुभ स्थिति में है और किसी भी प्रकार से इन तीनों लग्नों के प्रभाव में है, तो उस भाव का फल विशेष रूप् से प्रतिकूल अथवा अनुकूल, तद्नुरूप प्राप्त होगा।
एकादशेश
यदि एकादशेश क्रूर ग्रह हो और पंचम भाव में स्थित हो, तो यह योग ज्येष्ठ भ्राता के लिए अशुभ योग होता है। यदि पंचमेश कू्रर द्वारा दृष्ट हो या उससे प्रभावित हो, तो जातक के ज्येष्ठ भ्राता नहीं होता है क्योकि पंचम भाव, तृतीय से तृतीय होता है।
ग्रहों की स्थिति के आधार पर उनकी अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता
शुभ तथा अशुभ ग्रहों के लक्षणों/स्वभाव को भारतीय ज्योतिष में दो रूपों में विभाजित किया गया है –
1. नैसर्गिक गुण 2. स्थिति के अनुरूप गुण
नैसर्गिक तथा स्थिति के अनुरूप् गुण वाले ग्रहोें की अपने भिन्न, शुभ तथा अशुभ ग्रहों की सूची अग्रांकित है:
नैसर्गिक शुभत्व तथा अशुभत्व ग्रहों का मूल्यांकन
सामान्य रूप् से बृहस्पति तथा शुक्र नैसर्गिक शुभ ग्रह हैं तथा सूर्य, मंगल, शनि और राहु अशुभ ग्रहों की श्रेणी में आते हैं। सामान्यतः यदि चन्द्रमा क्षीण न हो, तो किसी लग्न हेतु चन्द्रमा को शुभ ही स्वीकारा जाता है। सूर्य और चन्द्रमा के मध्य 72 अंश से अधिक का अन्तर होने पर चन्द्रमा शुभ होता है परन्तु 72 अंश से कम का अन्तर होने पर उसे क्षीण चन्द्रमा कहते हैं जो अशुभ ग्रहों की श्रेणी में आता है।
मात्र बुध यदि किसी भाव में स्थित हो, तो शुभ स्वीकारा जाता है परन्तु यदि बुध अशुभ ग्रहों के साथ स्थित हो, तो अशुभ और शुभ ग्रहों के साथ स्थित हो, तो शुभ माना जाता है। राहु, शनि की भाॅति व केतु मंगल की भाॅति फल प्रदान करता है।