भारतीय परंपरा में विवाह संस्कार एक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। विवाह जीवन का एक आवश्यक अंग है, जिसके द्वारा सामाजिक परंपरा का निर्वाह तथा जीवन सुचारू रूप से चलायमान होता है। विवाह- निर्णय के लिए वर-वधू मेलापक ज्ञात करने की विधि अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतीय समाज में ऐसी मान्यता है कि जीवन में सामंजस्य तथा विपरीत परिस्थिति से जुझने में जीवनसाथी का सहयोग जीवन को आसान तथा कष्टरहित बना सकता है। यदि जीवनसाथी का श्रेष्ठ मिलान नहीं होता है, तो उनका वैवाहिक जीवन कष्टमय तथा अनेक वैवाहिक विडंबनाएॅ देने के अलावा पारिवारिक तथा सामाजिक रीतियों एवं परंपराओं को जीवित रखने में असमर्थ हो जाते हैं अत: दांपत्य जीवन सुखमय हो एवं कष्ट तथा प्रतिकूल स्थिति से सावधानी पूर्वक निकला जा सके, इसके लिए जीवनसाथी का सहयोगी होना आवश्यक है। इस हेतु हिंदु संस्कार में विवाह हेतु कुंडली मिलान का विशेष महत्व है।
साधारणतया अष्टकूट अर्थात् तारा, गुण, वश्य, वर्ण, नाड़ी, योनी, ग्रह गुण आदि के आधार पर वर-वधु मेलापक सारिणी के आधार पर गुणों की संख्या के साथ दोषों के संकेत होते हैं। सर्वश्रेष्ठ मिलान में 36गुणों का होना श्रेष्ठ मिलान का प्रतीक माना जाता है। उससे आधे अर्थात् 18गुण से अधिक होना ही कुंडली-मिलान का धर्म कांटा मान लिया जाता है। इससे अधिक जितने भी गुण मिले, वह वैवाहिक जीवन में सफलता का प्रतीक मान लिया जाता है। जहॉ दोषों का संकेत होता है, उनमें भी शुभ नव पंचम, अशुभ नवपंचम अथवा सामान्य नव पंचम या श्रेष्ठ द्विद्र्वादश, प्रीति षडाष्टक, केंद्र के शुभ-अशुभ का आकलन करके सभी ज्योतिविर्द कुंडली का मिलान कर लेते हैं। किसी प्रकार का दोष होने पर उसका परिहार भी मिल जाता है। कहा जाता है की ”नाड़ी दोषोस्ति विप्राणां, वर्ण दोषोस्ति भूभुजाम्। वैश्यानां गणदोषा: स्यात् , शूद्राणां योनि दूषणम् अर्थात् ब्राम्हणों में नाड़ी दोष मानना आवश्यक है, क्षत्रियों में वर्ण दोष की उपेक्षा नहीं की जा सकती, वैश्यों में गण दोष को प्रधान माना जाता है तथा शूद्रों के लिए योनि दोष की उपेक्षा शास्त्र सम्मत नहीं माना जाता है। आज के युग में जब कि सामाजिक व्यवस्था पूरी तरह से बदल चुकी है तब हम ब्राम्हण किसे मानें? किसे क्षत्रिय की संज्ञा दें? किसको वैश्य कहा जाए? और किसे शूद्र का दर्जा दिया जाए? आज जाति का अलंकार जन्म से या कर्म से माना जाए? इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करना भी कठिन है क्योंकि जन्मना जायते शूद्र, संस्कारात् द्विज उच्यते। वेदपाठीभवेद् विप्र, ब्रम्हणों जानाति ब्राम्हण:।
वर्तमान परिवेश में जन्म कुंडली का मिलान करते समय गुण मिलान के निर्णय के अनुकूल होने पर ही कुंडली मिलान ज्यादा प्रभावी हो सकता है। कुंडली में स्थित ग्रहों के मिलान, ग्रहों के उच्च-नीच, शत्रु-मित्र के योगायोग तथा उनके स्वभाव प्रकृति के अनुसार के साथ ही महादशा, अंतर्दशा तथा कुंडली के मारकेशों एवं आयु का प्राक्कलन श्रेष्ठ हो तो मिलान को श्रेष्ठता का निर्णायक मानना चाहिए।
जातकों के कुंडली में मंगल, सूर्य, शनि, राहु, शुक्र, गुरू एवं चंद्र की स्थिति तथा दृष्टि एवं अंतरदृष्टि के अनुसार सामंजस्य स्थापित कर वैवाहिक जीवन के विघटन को रोका तथा टाला जा सकता हैं साथ ही सप्तम स्थान में क्रूर ग्रहों की उपस्थिति, सप्तमेष पर क्रूर ग्रहों की दृष्टि या प्रतिकूल संबंध भी वैवाहिक जीवन को असफलता दे सकते हैं। इसके साथ ही 4, 8, 12 के साथ लग्न, सप्तम स्थानों पर मंगल होने से मांगलिक दोषों की स्थिति का मिलान भी आवश्यक रूप से कर लेना चाहिए। जीवन को सुखमय बनाने के अतिरिक्त उत्तरोत्तर उन्नति तथा निर्वाध संचालन हेतु वैवाहिक मिलान कर विवाह संस्कार संपन्न करना भारतीय परंपरा का एक परिचित साधन है। केवल नक्षत्रों के आधार पर आवंटित अष्टकूटों को विवाह का आधार मानना बाकी अष्ट ग्रहों के साथ अत्याचार होगा। अत: विवाह मेलापक में जन्मकुंडली मिलान में अर्थात् लग्न, ग्रह, भाव आदि पर ही विचार करना चाहिए। क्योंकि मेरी मति में अष्टकूटों से मेलापक का तरीका पुराना हो चुका है।
हमने चार गुणों में भी सुखद दाम्पत्य जीवन और 28गुणों में भी तलाक की स्थिति का अनुभव किया है। अत: विद्धान पाठकों से अपेक्षा है कि वे भी अपने अनुभवों के आधार पर जन्म कुंडली के गुण-दोषों पर विचार करते हुए विवाह की अनुमति देंगे अथवा प्राप्त करेंगे। यदि सप्तमेष अथवा सप्तम भाव शुक्र, सूर्य, चंद्र अथवा द्वादषेष या द्वादष भाव शनि अथवा क्रूर ग्रहों से आक्रांत हो, तो लड़कों के लिए अर्क विवाह एवं लड़कियों के लिए कुंभ विवाह कराना चाहिए।